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Tuesday 4 October 2016

"जब जब रूह को शहर की हवा खाने लगती है" (This poem was also broadcasted on All India Radio. A poem on experiences of living in a metropolitan city for 4 years.)

जब जब रूह को शहर की हवा खाने लगती है |
तब तब राही को घर की याद आने लगती है |
वो चौड़ी चिकनी सड़कें, वो आलीशान खटोले,
खचाखच पुरी राहें,फ़िर भी सन्नाटों की आहें,
मन में अवसाद की हरकत ,
दिल में बेबस सी शिरक़त,
वो तुझमे या या तू उसके अंदर,
उदासी को सहलाता बदहवासी का मंज़र,
बस उस क्षण ज़िन्दगी खुद से दूर जाने लगती है |
जब जब रूह को शहर की हवा खाने लगती है |
तब तब राही को घर की याद आने लगती है |

यूँ परतो में लिपटे चेहरे,
अँधेरों से भी गहरे,
दिलकशी के नग्मे,
अय्याशियों के फतवे,
बेबाक ,बेफिक्र निगाहें,
कामुकता में डूबी बाहें,
जो निष्ठुरता नेकी पर खुलकर छाने लगती है |
जब जब रूह को शहर की हवा खाने लगती है |
तब तब राही को घर की याद आने लगती है |

ओ खुले विचारों के द्वारक,
ये ढाढस,कंगूरे तुझे ही मुबारक |
मेरा अक्स अब भी उन्ही गलियों,चौबारों में बसता है |
वो छोटा सा घर, कुछ अपनों का साथ इन सब से ज्यादा जंचता है |
जहाँ मोहब्बत दिलों में और इंसानियत रूहों में समाती है |
ईमानदार किलकारियाँ जहाँ आज भी स्वदेशी गाती है |
वक़्त की रुत इन ख्यालातों को महकाने लगती है |
जब जब रूह को शहर की हवा खाने लगती है |
तब तब राही को घर की याद आने लगती है |


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