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Sunday, 8 January 2017

कुछ गुलाबी,कुछ मंद सी है। ये ठण्ड भी कुछ तुम सी है।

कुछ गुलाबी, कुछ मंद सी है।
ये ठण्ड भी कुछ तुम सी है।

ये गहरे सन्नाटे, ये सुनसान राहें।
गहरी ख़ामोशी, सहमी आहें।

घड़ी के काँटों, की अनुशासित आवाज़।
सहमें से चलें, बिलखते एहसास।

कुत्तों का सड़कों, पर ठसककर रोना।
उदासी की हसरत, संग कमरे का कोना।

दिवार पर लेटी, बरगद की परछाई।
चांदनी लपेटे रूई की रजाई।

सरसराती बदन को, छेदेे ये हवा।
मैं, तन्हाईयाँ, और रातें खफ़ा।

फ़िर इंजन की सिटी, रेल का निकलना।
राही का रुकना, वक़्त का गुज़ारना।

पत्तों पर, औस, की चमकती बूंदे।
पहर चले पर, न आँखें मूंदें।

धड़कनें दौड़ें।
मायूसी ओढ़ें।

जाड़े का समय, आधी रात, न कोई आस।
बेचैनियों की संगत, कविता का लिबास।

ये नादानियाँ, एक अरसे से खुद में बंद सी हैं।

कुछ गुलाबी, कुछ मंद सी है।
ये ठंड भी कुछ तुम सी है।

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