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Monday, 12 December 2016

'रजाई'

मौसम ने ली करवट और याद आई रजाई।
प्रारंभ हुई लोई,रजाई,कंबलों की कुटाई धुलाई।
ऐसी प्रतीत होती इन पर लिपटी हुई धूल।
जैसे मानो बिछें हों पथ में पंखुड़ी हुए शूल।
भरी हुई थी जिसमें पिछले साल तक भरपूर रूई।
वो न जाने बक्से में क्या कहाँ खोई।
खोली को जब बुरी तरह पीट-पीट कर रगड़ा।
तब दृश्य-चेतना में आया सफेद चमकीला कपड़ा। रजाई में जब एक बार तंत्र गया धंस।
छा गए चारों और आलस ही आलस।
समय की न रहती कोई बूंद की खबर।
आंखें मूंद खो गए नींद में दिनभर।
प्रच्छनता के प्रयास पर लगता घर्षण।
अति अदभुत है यह ऊर्जारुपी आकर्षण।
सर्दी के मौसम की है यह सच्ची भक्षक।
हीटर,एसी से ज्यादा है संरक्षक।
मर्गसिरसा के अंतिम पखवाड़े में करती ऐसा गर्म।गहरे ज़ख्म पर हो जैसे शालीन मरहम।
महीने की 1 तारीख़ को अब्बा की घर आई कमाई। आई की मंशा पर नई रजाई आई।
मौसम ने ली करवट और याद आई रजाई।

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