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Freelance Journalist, Mechanical Engineer, Writer, Poet, Thinker, Creator of Naya Hindustan (Youtube)

Friday, 1 November 2024

एक दीया...

     


एक दीया उस राम के नाम जो व्याप्त है कण-कण में,

जो विद्यमान है हर क्षण में, 

जो बैठा है हर रण में,  

जो बसता है हमारे अंतःकरण में

एक दीया उस राम के नाम।


एक दीया उस लक्ष्मण के लिए जिसने त्याग दिया राजभवन को,

आनंद विलास और राज धन को,

जो भ्राता संग भटकता रहा सघन वन को,

जिसने मजबूत किया राम के मन को,

एक दीया उस लक्ष्मण के लिए।


एक दीया उस सीता को अर्पित जो आदर्श और समर्पण की मूरत है,

जो हर संघर्ष में सहजता की सूरत है,

जो मर्यादा पुरूषोत्तम के जीवन की जरूरत है,

जो मां है, जननी है, कुदरत है,

एक दीया उस सीता को अर्पित।


एक दीया उस हनुमान की स्तुति में 

जो चंचल है, स्वामिभक्त है,

जो पुष्प सा कोमल है, पर्वत सा सख्त है,

जो सर्वशक्तिशाली है, परंतु शंकाग्रस्त है

जो ठान ले यदि लक्ष्य को, तो सूर्य भी नतमस्तक है।

एक दीया उस हनुमान की स्तुति में।



एक दीया उस लंकेश की स्मृति में भी

जो वेदों का ज्ञाता था, प्रकांड पंडित था,

जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश के वरदानों से मंडित था,

जो प्रतापी था, तपस्वी था, पर

नियति पटल पर खंडित था।

जो सर्वनाशी था, प्रकोपी था, जो प्रभु राम के बाण से रूंडित था,

एक दीया उस लंकेश की स्मृति में।


अंततोगत्वा,

एक दीया मानवता के उद्धार के लिए,

एक दीया प्रकृति के पुनः विस्तार के लिए,

एक दीया आत्म-साक्षात्कार के लिए,

एक दिया रामायण व वाल्मीकि द्वारा प्रदत्त संस्कार के लिए, 

एवं एक दीया आप सभी के द्वार के लिए।


दीपोत्सव की आपको व आपके स्वजनों को हार्दिक शुभकामनाएं।


जय श्री राम!

                    🪔 पुलकित उपाध्याय 🪔

Monday, 20 July 2020

उदासी

जीवन से परे, प्रकृति के नज़दीक, रहस्यमयी एकांत में, भावनाओं के बवंडर पर सवार, वक्त को खुद की तहों में समेटे, कभी क्षितिज पर, कभी बगीचे में, कभी खुले आसमान में पंछियों के बीच, कभी मीचि आँखों में कपाल के करीब, शांत, सहज, कुँए के जल के समान स्थिर और समुद्र की लहरों के समान गतिमान, हवा के झोंकों के हर एक कतरे में, हर सूर्यास्त और सूर्योदय के मध्य, हर सूर्योदय और सूर्यास्त के मध्य, मजदूर के चेहरे पर रोटी के रूप में, सेठ के चेहरे पर बोटी के रूप में, शिक्षा के चेहरे पर धन के रूप में, धन के चेहरे पर मन के रूप में, युवाओं के चेहरे पर वासना के रूप में, बुजुर्गों के चेहरे पर प्रेम के रूप में, आकाश की सतह पर बादलों के आकार में, जंगलों की नति पर अग्नि के प्रकार में, हर क्षण में, हर कण में, हर जीवन में, हर नयन में बचपन से दूर, साँसों की आवाजाही में हर तरफ, हर दिशा, हर क्षेत्र, हर अवस्था, हर व्यवस्था, हर कथा में जो मिथ्या है, जो संख्या है वह सब फंतासी है, जो सत्य है, चिरस्थायी है, जो बिना किसी आवेश के पसरी है, वही उदासी है।

Wednesday, 24 June 2020

'A Confession'

People often hamper me with such questions.
Who is she?
What is she?
I stay as motionless as a cloud 💭in a blue sky. 
They observe a grave silence, sharp head waving, closed eyes and a radiant smile on my face for a smidgeon of the moment. Yes, just a smidgeon of the moment, a well-measured smidgeon. Considering that shade of ignorance, the bliss of Shakespeare they pass by.
Today, I draw for you the depiction of my indulgence in that smidgeon.
She is the kiss of an angel.
Her eyes are deeper than the gorges of Gangotri.
Her face reminds me of the imagination I had of Vishkanya(poison-woman) when reading mythology for the very first time to whom I fancied getting bitten even if I die.
Her scattered hairs with a ponytail in the breeze are like mangroves swinging gently on a bright sunny day at the coast of Hoogly. 
When she smiles it feels that the season of springs is about to come in a heatwave.
She doesn't use perfume but I feel perfumed when I am around her, the one which you smell of the sand after mild rain.
Every time she walks she makes a new course. She is a super river indeed.
Her talks are chants of a yogi which bamboozles you if they inspire you more or aspire you more.
She forms an illusion of delta as she walks towards me and makes a short thunderclap in my heart when she hugs me, just like a holy river indulges in a salty sea to turn it somewhat brackish.
Among many, I tell you one intimate moment. Once I saw her naked back, it was reflectively shining like a worn smooth rock by the eternal flow of spring water over it.
Every time I see her I feel like seeing her first time. She ages but she is ageless and edgeless. And eventually, I get shot by life.
She has to be the most beautiful signature of almighty.
This is not a feature film, trailer, promo or anything materialistic. It is the crude depiction of that smidgeon of the moment, yes the well-measured one of my indulgence with a grave silence, sharp head waving, closed eyes and a radiant smile when people hamper me with such questions.
Who is she?
What is she? 

Tuesday, 9 June 2020

' सब अपने घर में हैं '

सब अपने घर में हैं।                 

प्रकृति अपने भंवर में हैं।
नदियाँ घाटियों के उदर में हैं।
पर्वत आसमानों के अधर में हैं।
हवाएँ बादलों के पर में हैं।
अग्नि हर कंकर में है।

सब अपने घर में हैं।

पक्षी अपने सफर में है।
ख़ामोशी हर एक पहर में है।
उदासी हर बसर में है।
मानव अब कहर में है।
काल फिर से सहर में है।

सब अपने घर में है।

सेठ अपने बिस्तर में है।
मजदूर अपने मुक़द्दर में है।
राजनीति अपने चौसर में है।
मानवीयता अपने कनस्तर में है।
समाज अपने डर में है।

सब अपने घर में है।

संक्रमण अत्यंत तीव्र में है।
तीव्र स्वयं शीघ्र में है।
नज़रें हर दम फिक्र में हैं।
खतरा हर एक ज़िक्र में है।
जीवन सिर्फ हिज्र में है।

सब अपने घर में हैं।

Sunday, 16 February 2020

एक दौर

एक दौर की तलाश में एक दौर से गुज़र गया।
एक दौर को उजाड़ कर एक दौर में ठहर गया।

वो आसमान से गहरा और दिशाओं से चौड़ा था।
वो हवाओं से तीव्र और सूरज का सातवाँ घोड़ा था।

वो जीवन से परे समय का एक खेल था।
वो काल की चौखट पर नियति का मेल था।

वो सन्नाटों की आहट में जीवन की बसावट था।
वो विलक्षण ही रातों में उजालों की लिखावट था।

वो आत्मा में जीवन का अदृश्य प्रसार था।
वो ईश्वर के साक्षात्कार का चित्त में प्रचार था।

वो क्षण का क्षण पर समरूप घर्षण था।
वो कण का कण से अद्वितीय आकर्षण था।

वो न जाने क्यों भौतिकता की बेड़ियों में कैद हो गया।
वो लक्ष्य से फिसल कर कपालिका वेद हो गया।

वो हारकर जीता और जीतकर हार गया।
हार को जीतकर तत्काल ही स्वीकार गया।

सँवर कर,संभल कर वो कुछ उस दौर में बिखर गया...

एक दौर की तलाश में एक दौर से गुज़र गया।
एक दौर को उजाड़ कर एक दौर में ठहर गया।

Friday, 11 October 2019

गज़ल :- ' भूल गए '

बारिशें जो घुसी गांव में,
तो पेड़ों पर ही झूल गए।


कुछ कलियाँ क्या खिली बाग में
वो पतझड़ के दिन भूल गए।


हमारी अठखेलियों को खेल समझने वाले,
तेरी जवानी के दिन फ़िज़ूल गए।


वक़्त की तहें मुझे इंसान बनाती रहीं,
हर तरक्की के लम्हे मेरे उसूल गए।


देश में मंदी का हवाला देते देते,
वो उस बूढ़े किसान से सारी खेती वसूल गए।


प्लास्टिक/रबड़ की गेंदों को अपनी रूह से जकड़ने वाले,
मैदान की उस डोली के सारे बबूल गए।


दीवारों को ताउम्र हिफाज़त का हवाला देने वाले
कुछ दरवाज़े बारिशों में फूल गए।


और हमको तुम अपनी वफाओं में सजा के रखना,
फ़िर ना कहना की हम बुलंदियों पर तुम्हे भूल गए।


Sunday, 29 September 2019

'तुम इतनी भी बुरी नही थी'

मेरी सोच एक दम खरी थी।
तुम इतनी भी बुरी नही थी।
आँखें तुम्हारी मदभरी थी।
वो घटाएँ बड़ी गहरी थी।
निगाहें जब तुमने मेरी निगाहों पर धरी थी।
ऋतुएँ बहकते हुए इक क्षण में ठहरी थी।
तुम इतनी भी बुरी नही थी।
मेरी सोच एक दम खरी थी।

उन तमाम चेहरों में से एक चेहरा तुम्हारा।
फूलों ने मुस्कुराते हुए उस वक़्त को गुज़ारा।
दुनियाँ के चेहरों से अनजान,
लोगों की फ़ितरत से नादान
तुम्हारी कल्पनायें मेरा जहान।
वो अल्हड़, मदहोश,आवारा उम्र की मियाद बस पल भर ही थी।
तुम इतनी भी बुरी नही थी।
मेरी सोच 100 फीसद खरी थी।

जिस शाम तुमने मुझे पहली दफा घूरा था।
मेरा निर्माण तब अधूरा था।
मैं मृग की भाँति सहमा,
कस्तूरी के आवेश में झूमा।
हर दिशा भटका,
क़दमों को हर छोर तक पटका।
जीवन से हारकर,खुद को जीता।
ये बात में किसको कहता,
कस्तूरी तो अंततः हिरण की नाभि में भरी थी।
मेरी सोच एक दम खरी थी।
तुम इतनी भी बुरी नही थी।