My photo
Freelance Journalist, Mechanical Engineer, Writer, Poet, Thinker, Creator of Naya Hindustan (Youtube)

Monday, 12 December 2016

'रजाई'

मौसम ने ली करवट और याद आई रजाई।
प्रारंभ हुई लोई,रजाई,कंबलों की कुटाई धुलाई।
ऐसी प्रतीत होती इन पर लिपटी हुई धूल।
जैसे मानो बिछें हों पथ में पंखुड़ी हुए शूल।
भरी हुई थी जिसमें पिछले साल तक भरपूर रूई।
वो न जाने बक्से में क्या कहाँ खोई।
खोली को जब बुरी तरह पीट-पीट कर रगड़ा।
तब दृश्य-चेतना में आया सफेद चमकीला कपड़ा। रजाई में जब एक बार तंत्र गया धंस।
छा गए चारों और आलस ही आलस।
समय की न रहती कोई बूंद की खबर।
आंखें मूंद खो गए नींद में दिनभर।
प्रच्छनता के प्रयास पर लगता घर्षण।
अति अदभुत है यह ऊर्जारुपी आकर्षण।
सर्दी के मौसम की है यह सच्ची भक्षक।
हीटर,एसी से ज्यादा है संरक्षक।
मर्गसिरसा के अंतिम पखवाड़े में करती ऐसा गर्म।गहरे ज़ख्म पर हो जैसे शालीन मरहम।
महीने की 1 तारीख़ को अब्बा की घर आई कमाई। आई की मंशा पर नई रजाई आई।
मौसम ने ली करवट और याद आई रजाई।

Tuesday, 25 October 2016

" रुक थोड़ा साँस ले " ( This poem was broadcasted on All India Radio in my voice.)

रुक थोड़ा साँस ले |
जीवन के एहसास ले |
खुद को खोल ले, विचारों को समेटकर |
शांति को महसूस कर, अकेले में बैठकर |
नाज़ुक क्षणों में खुद को रोककर |
ताल को यूँ ठोककर |
ताल में मिल जा जो तू |
ताल ही हो जा तू |
ताल को फिर साज दे |
रुक थोड़ा थोड़ा साँस ले |
जीवन के एहसास ले |


ज़माने में बहुत खो लिया |
कुछ ज्यादा ही हो गया |
खुद से मिल ले कभी |
मौका है अभी अभी |
भौतिकता से दूर हो |
तो फिर चेहरे पर नूर हो |
हौसले की डोर थाम और धैर्य को तू थाम ले |
अँधेरा छट जाएगा,उजाले के सामने |
न आगे कुछ न पीछे कुछ जो हे सिर्फ यह पल हे |
इस पल में डूब ले जरा और खुद को तराश ले |
रुक थोडा साँस ले |
जीवन के एहसास ले |

प्रेम मिला, दर्द मिला |
कहीं गर्म, तो मौसम कहीं सर्द मिला |
ये मिला, वो मिला |
तू कभी ठहरा, तो कभी डिगा |
जो मिलना था, मिलता रहा |
जो जाना था, जाता रहा |
तू बचा, तनहा बचा |
तू नगमा था, उसने रचा |
अब धुन तू बना ले जरा |
थोड़ा मुस्कुरा ले जरा |
आबरू को थाम ले और रूह को आवाज़ दे |
रुक थोड़ा साँस ले |
जीवन के एहसास ले |



Tuesday, 4 October 2016

"जब जब रूह को शहर की हवा खाने लगती है" (This poem was also broadcasted on All India Radio. A poem on experiences of living in a metropolitan city for 4 years.)

जब जब रूह को शहर की हवा खाने लगती है |
तब तब राही को घर की याद आने लगती है |
वो चौड़ी चिकनी सड़कें, वो आलीशान खटोले,
खचाखच पुरी राहें,फ़िर भी सन्नाटों की आहें,
मन में अवसाद की हरकत ,
दिल में बेबस सी शिरक़त,
वो तुझमे या या तू उसके अंदर,
उदासी को सहलाता बदहवासी का मंज़र,
बस उस क्षण ज़िन्दगी खुद से दूर जाने लगती है |
जब जब रूह को शहर की हवा खाने लगती है |
तब तब राही को घर की याद आने लगती है |

यूँ परतो में लिपटे चेहरे,
अँधेरों से भी गहरे,
दिलकशी के नग्मे,
अय्याशियों के फतवे,
बेबाक ,बेफिक्र निगाहें,
कामुकता में डूबी बाहें,
जो निष्ठुरता नेकी पर खुलकर छाने लगती है |
जब जब रूह को शहर की हवा खाने लगती है |
तब तब राही को घर की याद आने लगती है |

ओ खुले विचारों के द्वारक,
ये ढाढस,कंगूरे तुझे ही मुबारक |
मेरा अक्स अब भी उन्ही गलियों,चौबारों में बसता है |
वो छोटा सा घर, कुछ अपनों का साथ इन सब से ज्यादा जंचता है |
जहाँ मोहब्बत दिलों में और इंसानियत रूहों में समाती है |
ईमानदार किलकारियाँ जहाँ आज भी स्वदेशी गाती है |
वक़्त की रुत इन ख्यालातों को महकाने लगती है |
जब जब रूह को शहर की हवा खाने लगती है |
तब तब राही को घर की याद आने लगती है |


Thursday, 22 September 2016

' Arcane Discipline '

The day I accomplish it the day I would accomplish myself. A few lines about the exquisite 📄 doctrine of mine.

Arcane Discipline,
The mysterious grin.

Ample of haphazard,
Unveil new cards.

Flabbergastingly emphatic,
Way is sort of tragic.

Patience,silence 🔇 and smile,
Eliminate the entire guile.

Here at culmination you win,
That's the Arcane Discipline.

Saturday, 10 September 2016

' A Poem For My College's Tech Fest Aarohan '

खेलकूद,दौड़-भाग,नाच-गान,वाद-विवाद |
रंग-तरंग,तीक्ष्ण मृदंग और दिलकश संवाद ||

टेबल टेनिस,बॉक्स क्रिकेट,शतरंज जैसे अनेकों खेल |
पोस्टर,रंगोली,रंग-बिरंगे  विहंगम रंगे चेहरों का मेल ||

हज़ारों उत्साही ज़हनों का सुसज्जित त्यौहार |
वर्षा बाद लौट आई हो जैसे वार्षिक बहार ||

शिक्षकों,छात्रों का प्रतीत होता अनूठा साथ |
उपस्तिथि से परे अब मिलने लगे हों ज़ज्बात ||

कुछ राज़ से कुछ बाज़ों का उठ गया पर्दा |
मुस्कुराती लहरों की स्वस्थ प्रतिस्पर्धा ||

पूर्णिमा कि मशाल का पुनः हो गया प्रज्जवलन |
बिगुल बजा, ध्वज फिरा,प्रारम्भ हुआ आरोहन ||

Saturday, 27 August 2016

" बारिशों की धड़कनें,हवाओं की गुंजन,पेड़ों की चिहाड़ सुनी है मैंने "

बारिशों की धड़कनें,हवाओं की गुंजन,पेड़ों की चिहाड़ सुनी है मैंने |
जब तीनो एक साथ चलती हैं तो दरिया भी अपना काबू खो देते हैं |
ज़िन्दगियों को ढ़ोलते हुए बस्तियों में रो लेते हैं |
लेकिन ये दरिया की उदासी किस बात की है ?
खुद के पूरा हो जाने की या बादलों के दूर जाने की |
जिनका ज़रिया दरिया होता है वो अब भी लहरों पर चलकर जाते हैं |
हँसते हैं, गुदगुदाते हैं और सहमे हुए दोस्त को बहलाते,फुसलाते,सहलाते हैं |
मगर सहमी तो दुनिया भी है |
दरिया के छिदे हुए मर्मों से,
या खुद ही के कर्मों से !
खुद को इत्मिनान से रखो,मुस्कराहट में भी एहतियात बरतो |
वो दरिया हे वो अपने आप में ही धुनी है
बारिशों की धड़कनें, हवाओं की गुंजन,पेड़ों की चिहाड़ मैंने सुनी है |

Wednesday, 17 August 2016

राखी

एक डोरे का सख्त कलाई पर बंधना,
दो किलकारियों का  आपस में लड़कर खिलना,
सरहद तक उस स्वर का एक स्वर में पहुंचना,
उदासी के मध्य एक महीन मुस्कराहट का छिड़ना,
जीवन में बातों,जज़्बातों की साथी,
एक डोर, दो पत्ती, दो गांठे हे राखी |

Monday, 15 August 2016

A Special Questionnaire Poem On 70th Independence Day By Me

एक पंछी का उनमुक्त गगन में क्रीड़ा करना हे आज़ादी |
हवाओं का बेवक़्त खुदबख़ुद रुख़ मोड़ लेना हे आज़ादी |
क्या कल में रहते आज में, हम आज में आज़ाद हैं ?
यदि तृष्णा,आनंद का अतिव्यापन है, तो क्या हम आबाद हैं ?
खादी से ज्यादा घर में अंग्रेजी पौशकें आती हैं |
स्वदेशी से ज्यादा अब हमको पाश्चात्य सभ्यता भाती है |
आदर्श नही अब बेतरतीब जँचते हमारे कैश हैं |
सत्तर साल हुए आज़ादी के, फिर भी आपस में द्वेष है |
हम नही, स्मार्ट हमारे चल (सेल्यूलर) हैं |
कल में उठते कल में चलते, आज में हमारे हलचल है |
व्यापकता से मुँह मोड़कर खुले विचार हो लिए |
बुद्धि को कुंठित करवाकर खुद ही पर क्षुब्ध हो रो लिए |
पुलकित, अंग्रेजी परदे से ऊपर उठने की ज़रूरत है |
इरादे हमारे दृढ़ हैं किंतु इशारों में भी क्या हरकत है |
महसूस करो स्वदेशी दर्पण |
उसका सिक्का उसको अर्पण |
फिर देखो किस तरह प्रस्फुटित होते ज़ज़्बात हैं |
खुद के अस्तित्व का बोध होना सबसे मीठा स्वाद है |
क्या कल में रहते आज में , हम आज में आज़ाद हैं ?
यदि तृष्णा आनंद का अतिव्यापन हे तो क्या हम आबाद हैं ?
क्या कल में रहते आज में, हम आज में आज़ाद हैं ?

Thursday, 4 August 2016

An Intriguing Anecdote And Nothing Is Loathsome

30 days earlier when I used to run several miles for several minutes to burn the fat and weight I'd put up by relishing excessively on the luxurious life I possess. I just began my fitness regime and saw a curved lamp with broken glittering plastic sealing over my head. I saw 3 birds live in that shell which is filled with straws and dried grass. A guile thought spun in my mind and put me in conundrum and left quite perplexed. Initially, I thought what a waste of management it is ! It should have been fixed before allowing the birds to make their nest. I was huffing and puffing while running continuously and after 1 km I whiled that pole again. This time an anomalous thought dangled that as far as the new bulb is not planted in there the birds will live with full of comfort in rainy season which seems like autumn for them. The day area around the pole gets enlightened for human beings, it will be handed over to an age of eternal darkness for the little flying creatures. Will they survive the season? 
Will it glitter humanity or human-beings' world? 
I kept passing the pole again and again and thoughts kept bouncing over the course of entire workout. 
I fancied that it wouldn't be fixed till 
the culmination of the season. Perhaps, we wouldn't mind a little darkness on our planet to illuminate their lives. Moreover the two neighbouring poles would flash sufficient light. 
I was fancying all of that. Eventually, I persuaded myself with a string of thoughts that whatever will happen, will happen for a reason and happen for the betterment of living beings. Even if their nest would be thrown out then it would also make them acclimatise to the hard nuts to crack and will inject them with zeal to live more, fly higher after being survived or will end their lives that they deserve then if they don't. 
Similarly, time to time life hits and tests  us as hard as nothing else. If we don't hand off, we remain and if we do then we don't deserve to remain with no shades of grey. 
Hence, everything in life happens for a reason. Let it happen, control the controllable, cry, laugh, celebrate, keep endeavouring and never give up. Because " if life is full of uncertainties then it is full of possibilities as well ".

Wednesday, 27 July 2016

Hope:- A Redemption In Functioning

NOTICE:- THE READERS MUST GO THROUGH ITS FIRST SEGMENT UNDER THE TITLE 'Depression:- A Recession In Functioning' IN ORDER TO CONNECT BETTER WITH THIS POST.
Despite all the flaws at the time,I think that there is always a small window of hope,if not a window then the splits,splits of hope in a dark frightening cell of uncertainty.

Perhaps, the very next morning you look to adore the elevation and vibrations excelled by the sun. Your skin asks for some fresh chilled meek breeze of dawn. Your eyes intend to have a glimpse of cattle and farmers going towards the fields with some kind of fresh momentum in their legs. A few aged and ancient people gesture to you and say Ram-Ram.  Someone of them talks to you and say that their commute can't begin any better after meeting you all of sudden.

 Then your mother brings breakfast and ginger,tulsi,clove,black pepper spiced odorous hot tea. At the moment, you feel quite melted,generous,blissful within yourself and say thanks to almighty for giving a shed over head and bread on bed. You feel as though you've diagnosed yourself wrongly with the situation and emphasize for a better attitude next time.

Suddenly, a dull and forlorn life starts to scatter smile. It seems to catch an astounding rhythm. You tend to gain possibly the best mental shape of your life. Anything and everything of the universe drives to function with you in great tandem with a requisite harmony. Eventually, you realize that you've become stronger,sharper,wiser. You smile with a genuine gleam in your eyes and life becomes flabbergastingly emphatic and beautiful. 

Monday, 18 July 2016

Depression:- A Recession In Functioning

Depression:- The ailing state which is led by a chronicle of unwanted and unwell events when you start to feel excessive, eternal,vicious isolation from the people and yourself too over a seemingly timeless span. You feel like Sun will never rise,moon won't shine and clouds won't cry again neither in adulation nor in cast down and even if they do I don't give a f**k about them.You find anything and everything static,monotonous, hinged while drawing an analogy with yourself. Although you ask for some time to act so that you wouldn't react or overreact in the hazy attire wrapped around your soul culminating you on a bamboozled contradiction.
Eventually, a feeling comes as though you're a terrorist who crushed hundred of innocent smiles in a very coveted church on a sacred evening then you feel victimised,offended,brutal tormentor trio altogether who was made to put on the mask of Jannat,Shahadat,Zihaad.
You may also feel like a warrior of light who fought for goodness and saw a lot of deaths,blood,crying skeletons in front of his bare scarified eyes which never blink and his sleeps are also in great dread of the fiendish dreams of bloody war arena.
Despite all the flaws at the time,I think that there is always a small window of hope,if not a window then the splits,splits of hope in a dark frightening cell of uncertainty. 
 READ ITS SECOND SEGMENT UNDER THE TITLE 'Hope:- A Redemption In Functioning'.

Monday, 11 July 2016

My Doctrines

More silence, less arguements
More peace, less anxiety
More smile, less downcast
More respond, less react
More love, less animosity
More bliss, less predicament
Culminate in eternal meditation, transient wandering.

Saturday, 16 January 2016

" Imperfections Are Good "

Yesterday around 5 pm I was accelerating my bike to the slope of the stairs in way of pasage to my room. I saw a little boy holding about a dozen colourful kites in one and the sharp string was  wrapped in his another hand. His hair was brown, tiny eyes filled with belligerence of looting kites, a swirling pace in his legs and some sort of self-belief in his approach. He bidded my attention and after bike being parked I asked him with a light sincere laughter, " Chhotu ek patang de de yr, bohat sari he tere paas to".
The boy thought for a while and started to choose the kite with his outshined innocence.  In meanwhile, my neighbourhood friend Rakesh came  and uttered in exuberence "Wo wali dede kali,badi. Wo wali lo isse aap."  I immediately spotted him in conundrum. I interrupted and emphasized, " Beta, jo tera mn ho wo de de ." He elected with his little wits and handed over me a kite containing little wound on nose and in bounty said, " Paise leta hu me sbse, aapko free me de rha hu."
I looked deep in his eyes, he also did the same. I saw a go-getter in him. I smiled, loosened my wallet and gave him a five rupee coin saying , "le khulla itna hi he bs."
Rakesh came back to the game and spat, " Ek aur lo yr isse, oye ek aur de wo kali wali, paise de diye ab to tujhe". He looked embarrassed and nervous. I did juggernaut ," Nhi, rhne de ja, jaa, bohat he ye." As I suggested he ran as rapidly as though some kind of electric force drove him.
30 seconds later Rakesh awaked again and hit , " kya yr aapne bhi ek hi li usse,ye kat jaegi fir." I replied politely with my trendsetter, " Rakesh babu, ek zamane me ek patang se asmaan saaf kr deta tha me."  We both laughed and went quickly onto the roof and believe me folks I smashed 11 kites from that wounded kite, remained unbeaten till the occurence of flying lamps(parachute), kept on self-centered dialogue delivery till the very end and returned down in ecstasy. We booed, danced, laughed, screamed in joy and did whatever crazy stuff we could do. The Point of concern is, what just happened? That was a wounded kite, string was also jointed from 4-5 different strings of loot. Despite all these flaws How can we remain unbeaten?
How ?!?
I think, perhaps, the degree of hopes and pedigree of confidence of kite itself was entirely associated with the boy. Perhaps, its light paper possesses so much innocence and better belligerence than other kites as it complimented the frail looted jointed string. Perhaps, its sticks know how to swing while bent better than other kites and human beings. If not than, I got my old class and form back and I am the all time great 'Patangbaz' averaging 99.96 like Sir Don Bradman.
Funny one-liner the last one is ! Thus, 'imperfections are good'. They may seem imperfect in isolation but they are impeccable in assemblage. Things are pretty much same with the human beings then why do we complain of being imperfect ? Why do we don't adore ourselves for what we are and endeavor to make perfections out of it.
Hence folks, feel pride for what you are, keep discovering yourself, keep loving yourself and keep building on that. Because, "the imperfect things make the perfections and perfectionists."
Happy Makar Sakranti