लौटते रात के प्रहरी, निकलते सुबह के सूबेदार,
भौर का समय, पक्षियों की मधुर चहचहाट, उजाले-अंधेरे का आंशिक आलिंगन,
शीतल समीर की अटखेलियां, प्रकृति की स्थाई प्रतीत होती रमणीय व्यवस्था की अवस्था,
दादा साहब के हर एक राही से ओमकारे, राम-राम सुप्रभात का आपसी सत्कार,
शांत टहनियाँ, खुसफुसाती,सरसराती आहिस्ता-आहिस्ता पत्तियाँ,
मंद रोशनी में बादल सा प्रतीत होता नीला आकाश, मौसम की विसंगति के लगाए जाते रचनात्मक कयास
सर्वत्र सुसज्जित, विभूषित, पुरस्कृत, महिमामंडित प्राकृतिक सौंदर्य,
चित्त के आनंदित स्वर से अंगीकृत पंच इंद्रीय, सांसारिकता, भौतिकता, लुप्त होती नैतिकता में मानो सुलह हो गई है,
पुलकित बाबू ! यथार्थता और अयथार्थता में अनुरूपता को ना ढूंढो सुबह हो गई है।
No comments:
Post a Comment