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Freelance Journalist, Mechanical Engineer, Writer, Poet, Thinker, Creator of Naya Hindustan (Youtube)

Tuesday, 25 October 2016

" रुक थोड़ा साँस ले " ( This poem was broadcasted on All India Radio in my voice.)

रुक थोड़ा साँस ले |
जीवन के एहसास ले |
खुद को खोल ले, विचारों को समेटकर |
शांति को महसूस कर, अकेले में बैठकर |
नाज़ुक क्षणों में खुद को रोककर |
ताल को यूँ ठोककर |
ताल में मिल जा जो तू |
ताल ही हो जा तू |
ताल को फिर साज दे |
रुक थोड़ा थोड़ा साँस ले |
जीवन के एहसास ले |


ज़माने में बहुत खो लिया |
कुछ ज्यादा ही हो गया |
खुद से मिल ले कभी |
मौका है अभी अभी |
भौतिकता से दूर हो |
तो फिर चेहरे पर नूर हो |
हौसले की डोर थाम और धैर्य को तू थाम ले |
अँधेरा छट जाएगा,उजाले के सामने |
न आगे कुछ न पीछे कुछ जो हे सिर्फ यह पल हे |
इस पल में डूब ले जरा और खुद को तराश ले |
रुक थोडा साँस ले |
जीवन के एहसास ले |

प्रेम मिला, दर्द मिला |
कहीं गर्म, तो मौसम कहीं सर्द मिला |
ये मिला, वो मिला |
तू कभी ठहरा, तो कभी डिगा |
जो मिलना था, मिलता रहा |
जो जाना था, जाता रहा |
तू बचा, तनहा बचा |
तू नगमा था, उसने रचा |
अब धुन तू बना ले जरा |
थोड़ा मुस्कुरा ले जरा |
आबरू को थाम ले और रूह को आवाज़ दे |
रुक थोड़ा साँस ले |
जीवन के एहसास ले |



Tuesday, 4 October 2016

"जब जब रूह को शहर की हवा खाने लगती है" (This poem was also broadcasted on All India Radio. A poem on experiences of living in a metropolitan city for 4 years.)

जब जब रूह को शहर की हवा खाने लगती है |
तब तब राही को घर की याद आने लगती है |
वो चौड़ी चिकनी सड़कें, वो आलीशान खटोले,
खचाखच पुरी राहें,फ़िर भी सन्नाटों की आहें,
मन में अवसाद की हरकत ,
दिल में बेबस सी शिरक़त,
वो तुझमे या या तू उसके अंदर,
उदासी को सहलाता बदहवासी का मंज़र,
बस उस क्षण ज़िन्दगी खुद से दूर जाने लगती है |
जब जब रूह को शहर की हवा खाने लगती है |
तब तब राही को घर की याद आने लगती है |

यूँ परतो में लिपटे चेहरे,
अँधेरों से भी गहरे,
दिलकशी के नग्मे,
अय्याशियों के फतवे,
बेबाक ,बेफिक्र निगाहें,
कामुकता में डूबी बाहें,
जो निष्ठुरता नेकी पर खुलकर छाने लगती है |
जब जब रूह को शहर की हवा खाने लगती है |
तब तब राही को घर की याद आने लगती है |

ओ खुले विचारों के द्वारक,
ये ढाढस,कंगूरे तुझे ही मुबारक |
मेरा अक्स अब भी उन्ही गलियों,चौबारों में बसता है |
वो छोटा सा घर, कुछ अपनों का साथ इन सब से ज्यादा जंचता है |
जहाँ मोहब्बत दिलों में और इंसानियत रूहों में समाती है |
ईमानदार किलकारियाँ जहाँ आज भी स्वदेशी गाती है |
वक़्त की रुत इन ख्यालातों को महकाने लगती है |
जब जब रूह को शहर की हवा खाने लगती है |
तब तब राही को घर की याद आने लगती है |